Thursday, January 17, 2008

व्यंग्य क्या है?

सभी देशों में व्यंग्य साहित्य के एक तीखे औजार के रूप में जाना जा रहा है। यह लेखकों को एक नई पहचान देती है। मार्क ट्वेन, जॉर्ज बर्नार्ड शॉ, चेखव और भारतेंदु से लेकर परसाई तक अपनी व्यंग्य शक्ति के लिए मशहूर रहे हैं। लेकिन ये तो कलात्मक साहित्य की बात हुई। दूसरी विधाओं खासकर राजनीतिक साहित्य में भी व्यंग्य एक मारक शक्ति है।

मार्क्स, एंगेल्स और लेनिन के साहित्य में तीखे व्यंग्य मिलते हैं। मार्क्स की 'पवर्टी ऑफ फिलॉसफी','एंगेल्स की ड्यूरिंग...' और लेनिन के विभिन्न लेखों में ऐसी शक्ति है, जो कई व्यंग्यकारो के यहां से नदारद है। इससे साबित होता है कि व्यंग्य सिर्फ साहित्यिक भाषा के कमाल का नाम नहीं है। तब प्रश्न यह उठता है कि व्यंग्य क्या है और कहां से आता है?
व्यंग्य क्या है?
व्यंग्य अंग्रेज़ी के सटायर शब्द का हिंदी रूपांतर है। और इस आधार पर किसी व्यक्ति या समाज की बुराई को सीधे शब्दों में न कह कर उल्टे या टेढे शब्दों में व्यक्त किया जाना ही व्यंग्य है। बोलचाल में इसे ताना, बोली या चुटकी भी कहते हैं। हास्य, उपहास, परिहास, वाक्-वैदग्ध्य, पैरोडी, वक्रोक्ति, उपालंभ, कटाक्ष, विडंबना, अर्थ-भक्ष्य, ठिठोली, आक्षेप, निंदा-विनोद, रूपक, प्रभर्त्सना, स्वांग, अपकर्ष, चुहल, चुटकुला, मसखरी, भडैंती, ठकुरसुहाती, मज़ाक, दंतनिपौरी, गाली-गलौज ऐसे अनेक शब्द हैं, जो व्यंग्य को कमोबेश संप्रेषित करते हैं। फिर भी, इनमें से कोई शब्द व्यंग्य के व्यापकत्व को पूरी तरह निरूपित नहीं कर पाता। प्रत्येक शब्द किसी-न-किसी बिंदु पर व्यंग्य के समान होकर भी किसी अन्य बिंदु पर व्यंग्य से भिन्न हो जाता है। ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी के मुताबिक, व्यंग्य वह पद्यमय या गद्य रचना है, जिसमें प्रचलित दोषों या मूर्खताओँ का कभी-कभी कुछ अतिरंजना के साथ मज़ाक उड़ाया जाता है। इसका अभीष्ट किसी व्यक्ति विशेष या समूह का उपहास करना होता है। यानी, यह एक व्यक्तिगत आक्षेप के समान होता है।

इनसाक्लोपीडिया ब्रिटेनिका के मुताबिक, साहित्यिक दृष्टि से व्यंग्य उपहासास्पद या अनुचित वस्तुओं से उत्पन्न विनोद या घृणा के भाव को समुचित रूप से अभिव्यक्त करने का नाम है। बशर्ते, उस अभिव्यक्ति में हास का भाव निश्चित रूप से विद्यमान हो तथा उक्ति को साहित्यिक रूप मिला हो। हास्य के अभाव में व्यंग्य गाली का रूप धारण कर लेता है। और साहित्यिक विशेषता के बिना वह विदूषक की ठिठोली मात्र बनकर रह जाता है।

डॉ रामकुमार वर्मा ने कहा है कि आक्रमण करने की दृष्टि से वस्तुस्थिति को विकृत कर उसमें हास्य उत्पनना करना ही व्यंग्य है। वहीं डॉ हजारी प्रसाद द्विदेदी कबीर में लिखते है कि व्यंग्य तभी होता है, जब कहने वाला अधरोष्ठ में हंस रहा होता है, सुनने वाला तिलमिला उठा हो, फिर भी जवाब देना खुद को उपहासास्पद बना लेना होता है। वैसे व्यंग्य में क्रोध की मात्रा आ जाए तो हास्य की मात्रा कम हो जाती है।

मशहूर व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई अपनी किताब सदाचार का ताबीज की भूमिका कैफियत में व्यंग्य को जीवन की आलोचना करने वाला मानते हुए इसे विसंगतियों,मिथ्याचारों और पाखंडो का पर्दाफाश करने वाला मानते हैं। जीवन के प्रति वंय्ग्यकार की उतनी ही निष्ठा होती है, जितनी कि गंभीर रचनाकार की। बल्कि ज़्यादा ही। इसमें खालिस हंसना या खालिस रोना जैसी चीज़ नहीं होती।

यानी, व्यंग्य का वास्तविक उद्देश्य समाज की बुराईयों और कमजोरियों की हंसी उड़ाकर पेश करना होता है। मगर इसमें तहज़ीब का दामन मजबूती से पकड़े रहना जरूरी है। वरना व्यंग्यकार भडैंती की सीमा में प्रवेश कर जाएगा। फिर कुछ विद्वानों ने व्यंग्य में हास्य को एक अनिवार्य तत्व माना है तो कुछ ने नहीं। आखिर वास्तविकता क्या है? हास्य और व्यंग्य में आपसी रिश्ता क्या और कैसे है? हास्य और व्यंग्य की विभाजक रेखा आखिर क्या है? और व्यंग्य का काव्यशास्त्रीय आधार क्या है है भी या नहीं?

इसकी चर्चा अगले पोस्ट में करूंगा..

जारी

6 comments:

Unknown said...

Useful information👏👏👍👍👌👌

Unknown said...

सुंदर विवेचना । आभार ।

Unknown said...

Sunder shabdon ka paryog karke kisi ka majak udana

Unknown said...

Very good information

Unknown said...

आपने बहुत ही बड़ियां विचार बताया धन्यवाद.... मैं व्यंग्य पी .एच.डी करना चाहती हूं

Anonymous said...

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