Thursday, June 12, 2008

शब्दकार वापिस आ गया है...

शब्दकार वापिस आ गया है...

Wednesday, January 30, 2008

शर्म हमको मगर नहीं आती


हाल के दिनों में ब्लॉग की दुनिया से लेकर टीवी और अखबारों तक एक बहस तेज़ रही है कि मादा होने का दर्द क्या है? मोहल्ले पर एक दीप्ति दूबे हैं, वो अपनी दर्द बयां करती नज़र आईं। शर्म आई .. सिर्फ मर्द जात पर नहीं .. पूरी इंसानियत पर कि यार एक ही गाड़ी के दूसरे पहिए के साथ ऐसा सुलूक क्यों?

लेकिन ग़ौर से देखें बंधु तो स्त्री जाति पर ज़ुल्म ढाने में हमारा यानी हमारी कथित उच्च आदर्शों वाली भारतीय संस्कृति का बड़ा शानदार ट्रैक रेकॉर्ड रहा है। हमारे यहां कहावत है कि यत्र नार्यस्तु पूजयन्ते रमन्ते तत्र देवता। यानी जहां नारी की पूजा होती है वहां देवताओं का वास होता है। मान्यवर, जहां नारियां होंगी वहां देवता तो रहेंगे ही। देवताओं के मन में नारी को लेकर बडी शानदार अनुभूति रही है और गाहे-बगाहे हमारे देवता नारी को इस्तेमाल करने की चीज़ जानकर पर्याप्त मात्रा में बल्कि पर्याप्त से भी ज़्यादा उपभोग करते रहे हैँ।

ऐसा हमारी सभ्याता में तो है ही दुनिया की सभी सभ्यताओं में है। महिलाओं को देखते ही सभी संस्कृतियों के देवता बराबर रूप से स्खलित हो हैं। मामला डेन्यूब के देवता सुवोग का हो, जो देवी परंती के साथ संभोग में डूबे हैं या अपने परमपिता ब्रह्मा का जो अपनी बेटी सरस्वती पर आसक्त हो गए। औषधियों, तारागणों और ब्राह्मणों का देवता चंद्रमा तो देवताओं के गुरु वृहस्पति की पत्नी तारा पर इतना आसक्त हो गया कि उसने तारा को इंद्र के राजसूय यग्य से अपहृत कर लिया और उनके साथ बलात्कार करता रहा।

अब हमारे अंदर देवताओं वाले धर्म का पालन करने की इतनी अद्मय इच्छा है तो हम तो उनके स्त्री संबंधी विचारों का भी पालन करेंगे ही। क्या हमारे धर्म को बदलाव की ज़रूरत नहीं है, स्त्री से हमारे आचरण को लेकर?

Saturday, January 19, 2008

धान पर ध्यान


चीन मे एक कहावत है- दुनिया की सबसे बेशकीमती चीज़ हीरे-जवाहरात और मोती नहीं, धान के पांच दाने हैं। यह कहावत तब भी सच थी, जब बनी होगी और आज भी उतनी ही सच है। शायद इसीलिए पश्चिमी दुनिया जहां भेड़ों, सू्अरों, कुत्तों और इंसानों की क्लोनिंग पर ध्यान दे रहा है, वहीं भूख से जूझ रहे एशिया में धान के जीनोम की कड़ियां खोजी जा रही हैं। नेचर पत्रिका में तो कुछ महीने पहले धान के जीनोमिक सीक्वेंस को छापा भी गया है।

एशिया समेत दुनिया के बड़े हिस्से में तीन अरब लोगों का मुख्य भोजन चावल है। लेकिन इस फसल से भोजन पाने वाली आबादी का ज़्यादातर हिस्सा अभी भी भूखा ही है। दुनिया भर में ८० करोड़ लोग भुखमरी के शिकार हैं और करीब ५० लोख लोगों की मौत कुपोषण की वजह से हो जाती है। आंकड़ों को और भी भयावह बनाता है यह तथ्य कि दुनिया की आबादी में हर साल ८ रोड़ ६० लाख लोग जुड़ जाते हैं। इस तेज़ी से बढ़ती आबादी का पेट भरने के लिए अगले दो दशकों में चावल की उपज को ३० फ़ीसदी तक बढ़ाना होगा।

लाख टके का सवाल है कि यह चावल कहां और कैसे पैदा होगा? आमतौर पर उपज बढ़ाने के दो तरीके सर्वस्वीकृत हैं। पहला, खेती के लिए ज़मीन को बढ़ाना या फिर पैदावार में बढ़ोत्तरी करना। साठ के दशक के पहले, पहले वाले विकल्प को ज्यादा आसान मानकर उसी पर अमल किया गया। परिणाम सबके सामने है। हमने विश्वभर में बहुमूल्य जंगलों की कटाई कर उनमें खाद्यान्न बो दिए और प्रदूषण और पारिस्थितिक असंतुलन को न्यौता दिया। लेकिन साठ के दशक में नॉर्मन बारलॉग जैसे वैज्ञानिकों ने स्थिति की नजाकत को समझकर दूसरे विकल्प यानी पैदावार बढ़ाने के लिए बीजों की गुणवत्ता में सुधार और तकनीकी साधनों की ओर ध्यान दिया। उस प्रयास का परिणाम निकला हरित क्रांति के रूप में। जैसे ही पौधों की नई किस्मे पहले मैक्सिको और फिर पूरे विश्व में बोई जाने लगी फसल उत्पादन में भारी बढ़ोत्तरी हुई। ख़ासकर एशिया में यह वृद्धि की दर २ फीसदी सालाना के आसपास रही।

हरित क्रांति के सफर में कुछ पड़ाव भी आए। पिछले कुछ वर्षों में उत्पादन में वृद्धि की दर मामूली रही, तो यह सोच लिया गया कि चावल उत्पादन अब अपने चरम पर पहुंच चुका है और इसमें अधिक विकास की अब संभावना नहीं बची। ऐसे में सीमांत भूमियों उत्पादन बढ़ाना एक बड़ी चुनौती रही है, जहां अधिकतर फसलें कीटों के प्रकोप, रोगों या सूखे की वजह से खत्म हो जाती है।

कई वैज्ञानिक मानते हैं किदुनिया के सबसे गरीब व्यक्ति तक खाना पहुंचाना का उपाय जीन इंजिनिरिंग से सुधारी गई फसलें ही हो सकती हैं। ये फसलें प्राकृतिक आपदाओं का सामना करने में अधिक सक्षम हैं। जीएम फसलों की क्षमता तब एक बार फिर उजागर हुई जब एक चीनी अध्ययन में कीट-प्रतिरोधी जीएम चावल की किस्म में दस फीसदी की बढ़ोत्तरी दर्ज़ की गई।

यह सिर्फ उत्पादन बढ़ाने का ही मामला नहीं है, बल्कि यह कीटनाशकों के अत्यधिक हो रहे प्रयोग को नियत्रित करने में भी सहायक होगा। चीन में ऐसे कीट प्रतिरोधी क़िस्में उगाने वाले किसानोें में कीटनाशकों से होने वाली स्वास्थ्य समस्याओं में नाटकीय सुधार देखा गया है।

लेकिन हरित क्रांति की राह में पड़ाव भी आए। वैसे तो, १९८३ से ही चावल के बी संकर बीज उपलब्ध थे, लेकिन १९८७ में हरित क्रांति के दूसरे चरण से शुरूआत बड़े स्तर पर की गई। इसमें 'अधिक चावल उपजाओ' कार्यक्रम को प्रधानता दी गई। इस द्वितीय चरण में १४ राज्यों के १६९ ज़िलों का चुनाव किया गया। संकर बीजों की उपलब्धता को ध्यान में रखते हुए १६९ में से १०८ ज़िलों में चावल क्रांति को प्राथमिकता दी गई। दरअसल, इनमें हरियाणा के ७ और पंजाब के ३ ज़िले भी शामिल हैं, जिन्हें परंपरागत तौर पर गेहूं उत्पादक माना जाता था। अन्य प्रमुख राज्यों में से मध्यप्रदेश(छत्तीसगढ़ सहित) के ३० उत्तरप्रदेश-उत्तरांचल के ३८, बिहार के १८, राजस्थान के १४ और महाराष्ट्र के १२ ज़िले।

दूसरे चरण की हरित क्रांति का ही परिणाम है कि भारत आज खाद्यान्न उत्पादन में आत्मनिर्भर है। खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ) को खाद्यान्न दान करने दूसरा सबसे बड़ा देश है।

चवाल के जीनोम की सिक्वेंसिंग इंटरनेशनल राइस जीनोम सिक्वेंसिंग प्रोजेक्ट ने की है। इसका डाटाबेस भारत समेत जापान, चीन ताईवान, कोरिया, थाईलैंड, अमेरिका, कना़डा, फ्रांस, ब्राजील, ब्रिटेन और फिलीपीन्स के वैज्ञानिकों के लिए निशुल्क उपलब्ध है। ज़ाहिर है, यहां भूमंडलीकरण के सकारात्मक पहलू सामने आए हैं।दुनिया में करीब १२० करोड़ लोग रोजाना एक डॉलर से भी कम पर गुजारा करते है। ऐसे में , रोग, पेस्ट, सूखा और लवणता प्रतिरोधी धान की फसल तीसरी दुनिया के कृषि परिदृश्य में क्रांति ला सकती है जाहिर है, यह भूखों के हित में होगा।

मंजीत ठाकुर

Thursday, January 17, 2008

व्यंग्य क्या है?

सभी देशों में व्यंग्य साहित्य के एक तीखे औजार के रूप में जाना जा रहा है। यह लेखकों को एक नई पहचान देती है। मार्क ट्वेन, जॉर्ज बर्नार्ड शॉ, चेखव और भारतेंदु से लेकर परसाई तक अपनी व्यंग्य शक्ति के लिए मशहूर रहे हैं। लेकिन ये तो कलात्मक साहित्य की बात हुई। दूसरी विधाओं खासकर राजनीतिक साहित्य में भी व्यंग्य एक मारक शक्ति है।

मार्क्स, एंगेल्स और लेनिन के साहित्य में तीखे व्यंग्य मिलते हैं। मार्क्स की 'पवर्टी ऑफ फिलॉसफी','एंगेल्स की ड्यूरिंग...' और लेनिन के विभिन्न लेखों में ऐसी शक्ति है, जो कई व्यंग्यकारो के यहां से नदारद है। इससे साबित होता है कि व्यंग्य सिर्फ साहित्यिक भाषा के कमाल का नाम नहीं है। तब प्रश्न यह उठता है कि व्यंग्य क्या है और कहां से आता है?
व्यंग्य क्या है?
व्यंग्य अंग्रेज़ी के सटायर शब्द का हिंदी रूपांतर है। और इस आधार पर किसी व्यक्ति या समाज की बुराई को सीधे शब्दों में न कह कर उल्टे या टेढे शब्दों में व्यक्त किया जाना ही व्यंग्य है। बोलचाल में इसे ताना, बोली या चुटकी भी कहते हैं। हास्य, उपहास, परिहास, वाक्-वैदग्ध्य, पैरोडी, वक्रोक्ति, उपालंभ, कटाक्ष, विडंबना, अर्थ-भक्ष्य, ठिठोली, आक्षेप, निंदा-विनोद, रूपक, प्रभर्त्सना, स्वांग, अपकर्ष, चुहल, चुटकुला, मसखरी, भडैंती, ठकुरसुहाती, मज़ाक, दंतनिपौरी, गाली-गलौज ऐसे अनेक शब्द हैं, जो व्यंग्य को कमोबेश संप्रेषित करते हैं। फिर भी, इनमें से कोई शब्द व्यंग्य के व्यापकत्व को पूरी तरह निरूपित नहीं कर पाता। प्रत्येक शब्द किसी-न-किसी बिंदु पर व्यंग्य के समान होकर भी किसी अन्य बिंदु पर व्यंग्य से भिन्न हो जाता है। ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी के मुताबिक, व्यंग्य वह पद्यमय या गद्य रचना है, जिसमें प्रचलित दोषों या मूर्खताओँ का कभी-कभी कुछ अतिरंजना के साथ मज़ाक उड़ाया जाता है। इसका अभीष्ट किसी व्यक्ति विशेष या समूह का उपहास करना होता है। यानी, यह एक व्यक्तिगत आक्षेप के समान होता है।

इनसाक्लोपीडिया ब्रिटेनिका के मुताबिक, साहित्यिक दृष्टि से व्यंग्य उपहासास्पद या अनुचित वस्तुओं से उत्पन्न विनोद या घृणा के भाव को समुचित रूप से अभिव्यक्त करने का नाम है। बशर्ते, उस अभिव्यक्ति में हास का भाव निश्चित रूप से विद्यमान हो तथा उक्ति को साहित्यिक रूप मिला हो। हास्य के अभाव में व्यंग्य गाली का रूप धारण कर लेता है। और साहित्यिक विशेषता के बिना वह विदूषक की ठिठोली मात्र बनकर रह जाता है।

डॉ रामकुमार वर्मा ने कहा है कि आक्रमण करने की दृष्टि से वस्तुस्थिति को विकृत कर उसमें हास्य उत्पनना करना ही व्यंग्य है। वहीं डॉ हजारी प्रसाद द्विदेदी कबीर में लिखते है कि व्यंग्य तभी होता है, जब कहने वाला अधरोष्ठ में हंस रहा होता है, सुनने वाला तिलमिला उठा हो, फिर भी जवाब देना खुद को उपहासास्पद बना लेना होता है। वैसे व्यंग्य में क्रोध की मात्रा आ जाए तो हास्य की मात्रा कम हो जाती है।

मशहूर व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई अपनी किताब सदाचार का ताबीज की भूमिका कैफियत में व्यंग्य को जीवन की आलोचना करने वाला मानते हुए इसे विसंगतियों,मिथ्याचारों और पाखंडो का पर्दाफाश करने वाला मानते हैं। जीवन के प्रति वंय्ग्यकार की उतनी ही निष्ठा होती है, जितनी कि गंभीर रचनाकार की। बल्कि ज़्यादा ही। इसमें खालिस हंसना या खालिस रोना जैसी चीज़ नहीं होती।

यानी, व्यंग्य का वास्तविक उद्देश्य समाज की बुराईयों और कमजोरियों की हंसी उड़ाकर पेश करना होता है। मगर इसमें तहज़ीब का दामन मजबूती से पकड़े रहना जरूरी है। वरना व्यंग्यकार भडैंती की सीमा में प्रवेश कर जाएगा। फिर कुछ विद्वानों ने व्यंग्य में हास्य को एक अनिवार्य तत्व माना है तो कुछ ने नहीं। आखिर वास्तविकता क्या है? हास्य और व्यंग्य में आपसी रिश्ता क्या और कैसे है? हास्य और व्यंग्य की विभाजक रेखा आखिर क्या है? और व्यंग्य का काव्यशास्त्रीय आधार क्या है है भी या नहीं?

इसकी चर्चा अगले पोस्ट में करूंगा..

जारी